शिव बाबा के अवतरण की कहानी
किसी ने भी अपने जीवन में ऐसी कथा न ही सुनी होगी और न ही उसका कोई साक्षी होगा जो कथा सीधा परमात्मा से जोड़ती हैं। परमात्मा की पहचान ,उनसे अपने सम्बन्ध को जानना व परमात्मा के आने के समय को जानना -ऐसे ज्ञान से श्रेष्ठ क्या हो सकता है। यह वही कथा है जिसे पुराणो में "यज्ञ"कहा जाता रहा है (ज्ञान की वह पवित्र अग्नि जिसमे अपने विकारो की आहुति दी जाती हैं)
ओम मण्डली (प्रजापिता ब्रह्माकुमारी ईश्वरीय विश्वविद्यालय )का इतिहास अति अद्धभुत और अटल सत्य है,जिस सत्य को स्वयं परमात्मा ने रचा व् स्थापन किया। यह भी बताना चाहते हैं की जो अभी इस समाज के लिए इतिहास है ,वो कभी किसी समाज का वर्तमान था। समाज तभी परिवर्तन होता हैं जब उसका कोई विशेष कारण हो। ओम मण्डली भी तब के समाज में परिवर्तन लाने में विशेष कारण बना और बन रहा है और जिसका अंतिम लक्ष्य है -विश्व परिवर्तन.-जो स्वयं परमात्मा के द्वारा दिया गया लक्ष्य है। इस व्यापक इतिहास को चार चरणों में प्रस्तुत किया गया है।
पहला चरण
परमत्मा को जब नयी सृष्टि का सृजन करने का संकल्प उठा तब इस इतिहास की स्थापना हुई । अतः जिस विशेष आत्मा को परमात्मा ने माध्यम बनाया उनका लौकिक नाम कुबचन्द लेखराज था (जिनको सब प्यार से दादा कहते थे। ) इनका जन्म १५ दिसंबर। १८७३ को हुआ। यहाँ पर यह उल्लेख करना आवश्यक है की जब परमात्मा इस धरा पर आये तब उनका अवतरण हुआ क्योंकि परमत्मा ने दादा लेखराज का तन का आधार लिया जबकि लेखराज कूबचंद का १८७३ में जन्म हुआ था। उनके लौकिक पिता स्कूल में प्रधान अध्यापक थे। दादा ने अपने जीवन में अति संघर्ष किया था। अपने परिश्रम व् तीक्ष्ण बुद्धि द्वारा दादा ने गेहूँ के एक छोटे व्यापर से एक प्रसिद्ध जौहरी होने का सफर तय किया। दादा का विवाह जसोदा नामक कन्या से हुआ व उनकी पांच संतान थी। दादा की उनके व्यवसाय (लखीराज -सेवकराम और संस ) मे सेवकराम कूबचन्द दासवानी के साथ साझेदारी थी। दादा का व्यवसाय सुचारू रूप से चलता था और सब उनका बहुत आदर करते थे। यद्यपि उनका व्यवसाय कलकत्ता में था परन्तु वह हैदराबाद (सिंध )मे अपने परिवार के साथ रहते थे।दादा श्री नारायण के अनन्य भक्त थे। वह अपने नियम के अति पक्के थे। उनका भक्ति-भाव इतना परिपक़्व था कि व्यापार या घर की कैसी भी परिस्थिति हो,वह एक दिन भी भक्ति -पाठ करे बिना नहीं रहते। दादा का भक्ति-भाव इतना प्रबल था की ईश्वर प्रेम में उन्होंने १२ गुरु किये।
तो जैसे पहले बताया गया की परमपिता परमात्मा ने कलियुग रूपी धरा पर अवतरण लेने के लिए दादा लेखराज को माध्यम बनाया। सन १९३५ -१९३६ के आसपास दादा को परमात्मा द्वारा दिव्य-चक्षु वरदान मिला और उन्हें कई साक्षात्कार हुए।
दादा को सबसे पहला साक्षात्कार "विष्णु चतुर्भुज "का बम्बई में हुआ।
वाराणसी में निराकार ज्योतिर्लिंगम शिव परमात्मा व कलियुगी सृष्टि के महाविनाश का साक्षात्कार हुआ ।
दादा ने यह साक्षात्कार किया कि कैसे महाविनाश के परिणामस्वरूप करोड़ो आत्माये परमधाम (जो आत्माओ का घर हैं )वैसे ही लौट रही हैं जैसे पतंगे प्रकाश की और लपकते हैं।
दादा को श्री कृष्ण ,जगन्नाथ जी ,बद्रीनाथ जी,व केदारनाथ जी का भी साक्षात्कार हुआ।
एक साक्षात्कार में उन्होंने विष्णु को "अहम् चतुर्भुज तत त्वम् " कहते देखा।
दादा को मृत्यु दशा का साक्षात्कार भी हुआ।
दादी बृजिंद्रा ने एक दृष्टान्त वर्णित करते हुए बताया कि एक बार दादा जब सत्संग के दौरान उठकर अपने कमरे में गए और दादी (जो उनकी लौकिक बहु थी )बाबा को देखने के लिए गई तब उन्होंने सारा कमरा लाल रौशनी से प्रकाशमय पाया। दादी बताती है "बाबा के नेत्रों में इतनी लाली थी की ऐसा लगता था की उनमे कोई लाल बत्ती जल रही है। उनका चेहरा भी एकदम लाल था और कमरा भी प्रकाशमय हो गया था। इतने मे एक आवाज़ ऊपर से आती मालुम हुई। जैसे कि दादा के मुख से कोई दूसरा बोल रहा है। दादा जब उस मुद्रा से बाहर आये तो उन्होंने अनुभव अपना भी बताया।
इन साक्षात्कारों के बाद दादा को बाहरी दुनिया से वैराग्य आने लगा। उन्होंने एकान्त में रहना और स्व-चिंतन करना प्रारंभ किया। उन्हें निश्चय हुआ की परमात्मा उनके माध्यम से कोई कार्य करवाना चाहते है परन्तु किस कार्य के लिए उन्हें चुना गया है ,यह उनको ज्ञात नहीं था।
Part 1 of History ('ॐ मंडली की शरुआत)
(download Part 1)
अब उनको दिव्य -ज्ञान की प्राप्ति हुई और दिव्य-ज्ञान का स्फुरण हुआ। यूँ तो बाबा भगवत गीता का हमेशा बड़ी रूचि से अध्ययन किया करते थे किन्तु अब उन्हें ऐसा प्रतीत हुआ भगवान अव्यक्त रूप में उन्हें गीता -ज्ञान दे रहे हैं। दादा को यह निश्च्य हुआ "मैं यह देह नहीं हुँ, मैं अविनाशी आत्मा हूँ , यह शरीर विनाशी हैं"
इस सत्य को उन्होंने जीवन मे लाने का अभ्यास किया जिसके फलस्वरूप उनके जीवन में एक अलौकिक परिवर्तन आया। दादा ने अन्य परिजनों को भी इस सत्य से परिचित कराया और वह भी आत्म -स्थिति में रह अलौकिक शांति का अनुभव करने लगे। सत्संग में आने वालो को श्रीकृष्ण ,कलियुगी दुनिया का महाविनाश और दैवी दुनिया के दिव्य साक्षात्कार होने लगे। सत्संग में साक्षात्कार की खबर सारे शहर में फैल गई। अब अन्य कन्यायें और पुरुष भी आने लगे। सभी को यहीं अनुभव हुआ की दादा लेखराज यह साक्षात्कार करा रहे हैं परन्तु यह तो परमात्मा का कार्य था।
१९३७ से १९३८ तक
सत्संग में आने वाली में एक विशिष्ट कुमारी भी थी जिनका नाम "राधे" था। वह बाद में "ओम राधे "के नाम से प्रसिद्ध हुई। उन्होंने शीघ्र ही अपने जीवन के बारे में यह निर्णय किया की वह आजीवन ब्रह्मचर्य व्रत का पालन करेगी और ज्ञानामृत पीने और पिलाने के उच्च कार्य में स्वयं को लगा देंगी। सत्संग के द्वारा कई समाज सुधार होने लगे। सत्संग में आने वाले कन्याएँ व् महिलाओं ने सादा व पवित्र जीवन जीना आरम्भ किया। सत्संग में पवित्रता का महत्त्व समझाया जाने लगा और हमे ईश्वरीय सन्देश मिला- "है आत्मा, तुम इस शरीर की मालिक दिव्य चेतना शक्ति आत्मा हो।" यह ईश्वरीय सन्देश सुनकर, कई कन्या और माताओ ने प्रतिज्ञा कर ली- हम आजीवन पवित्र रहेंगे। इसके कारण उन माताओ के पति उनसे जगदा करते व सत्संग में जाने को मना करते। यह १ साल तक चला।
दादा जुलाई १९३६ में अपने लौकिक परिवार के साथ कश्मीर के लिए निकले। दादा के कश्मीर जाने के बाद ,उनके कुछ मित्र सम्बन्धी तथा अन्य माताएं -कन्याएं सत्संग मे आते रहे और सत्संग को सुचारू रूप से चलता रहा। दादा और मातायें -कन्यायें के बीच ज्ञान का अमूल्य खज़ाना पत्र -व्यवहार द्वारा चलता रहा। उन कन्याओ -माताओं में से ध्यानी,रुक्मणि ,गोपी और राधे का विशेष तौर पर उल्लेख हैं। सत्संग की संख्या दिनों-दिन बढ़ती गई। अब लगभग ३०० मातायें और कन्याएँ तथा भाई प्रतिदिन आने लगे।
जब बाबा ने सत्संग का विकसित रूप देखा तो उन्होंने ओम राधे को सत्संग का अवैतनिक इंचार्ज नियुक्त किया और उनके साथ आठ-दस अन्य ज्ञान -निष्ठ कन्याओं -माताओं की एक कार्यकारिणी समिति बनाई और अपनी सारी सम्पत्ति उस कमेटी को अर्पित कर दी। इस विषय में उन्होंने २७ फरवरी १९३८ को लिखा "मैं अपना सब जर (सोना),जेवर जमीन,मुतहरक और गैर मुतहरक जायदाद इन माताओं की कमेटी को समर्पित करता हूँ ताकि यह इस ईश्वरीय सेवार्थ कार्य में लगावी जाए। "
सत्संग "ओम मण्डली"के नाम से विख्यात हुआ क्योंकि यहाँ "ओम "की ध्वनि की जाती थी। और उसके अर्थ-स्वरूप में स्थित किया जाता था।
परमपिता परमात्मा ने दादा के मुख कमल द्वारा महावाक्य उच्चारण किये :"काम विकार नरक का द्वार है। "अर्थात पवित्रता पर जोर दिया। परमपिता परमात्मा ने 'ओम बाबा 'के तन द्वारा यह निर्देश दिया की अपने अभिभावक अथवा संरक्षक से पत्र ले आये जिसमे यह लिखा हो कि वे अपने पुत्री, बहु, अथवा पुत्र को ओम राधे के पास जाकर ज्ञानामृत पीने -पीलाने तथा अपने जीवन को पवित्र बनाने के लिए ख़ुशी से छुट्टी देते हैं। जिन माताओं ,कन्याओं के सभी जन आते थे ,उन्हें तो ऐसा पत्र लिखा कर लाने में कोई परेशानी नहीं हुई। परन्तु जिनके अभिभावक का जीवन तमोगुणी था, उन्हें ऐसा पत्र लाने में बहुत कठिनाई का सामना करना पड़ा। लेकिन हर एक ने अपने उच्च धारणाओं, अपने मनोपरिवर्तन, सादा जीवन आदि-आदि का प्रभाव डालकर ऐसा पत्र प्राप्त कर ही लिया। स्वयं बाबा ने अपनी लौकिक पुत्री को, बहु राधिका को तथा अपनी धर्मपत्नि "जसोदा"आदि को ऐसे पत्र लिख कर दिए थे।
अब ऐसे विद्यालय खोलने का प्रबंध हुआ...
Listen Part 2 ('Karachi -Tapasya and Visions/Shakshatkaar' - narrated in Hindi)
(download Part 2)
coming soon...